देश के चर्चित स्टैंड-अप कॉमेडियन कुनाल कामरा एक बार फिर सुर्खियों में हैं। इस बार उनके बयान ने न सिर्फ सोशल मीडिया पर बहस छेड़ दी है बल्कि देश के सामाजिक और सांप्रदायिक माहौल को लेकर गंभीर चिंतन की भी ज़रूरत सामने रख दी है। एक इंटरव्यू के दौरान जब पत्रकार कन्नन ने उनसे पूछा कि वे इस्लाम या मुस्लिमों पर चुटकुले क्यों नहीं बनाते, तो कुनाल कामरा ने बड़ी साफगोई से जवाब दिया – "मैं मुस्लिमों पर जोक्स नहीं बनाता क्योंकि वे इस देश में केवल 20% हैं और उनके पास पहले ही कुछ नहीं बचा है।"
कुनाल कामरा ने आगे कहा, "जो आम मुस्लिम है इस देश में, उसके पास सिर्फ़ उसका ईमान बचा है। और मैं उस समुदाय को जानता भी नहीं हूं। मैं किसी ऐसे समुदाय की आस्था का मजाक नहीं बना सकता जिसे मैं समझता तक नहीं हूं।" उनका यह बयान कई मायनों में देश की वर्तमान सामाजिक संरचना और अल्पसंख्यकों की स्थिति को दर्शाता है।
कामरा का यह बयान जहां एक ओर उनके संवेदनशील दृष्टिकोण को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर यह देश की बहुसंख्यक मानसिकता पर भी एक तीखा सवाल उठाता है। क्या हास्य और व्यंग्य की स्वतंत्रता का उपयोग केवल उन्हीं वर्गों पर किया जाना चाहिए जो पहले से ही शक्ति में हैं? क्या कमजोर वर्गों या अल्पसंख्यकों की धार्मिक आस्था को निशाना बनाना नैतिक रूप से उचित है?
कामरा का यह विचार कि "हास्य के माध्यम से सत्ता को चुनौती दी जानी चाहिए, न कि उन लोगों को जो पहले से ही हाशिए पर हैं" भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना को दर्शाता है। उनका मानना है कि कॉमेडी समाज का आईना होती है और इसका उपयोग सत्ता, व्यवस्था और बहुसंख्यक मानसिकता की आलोचना के लिए होना चाहिए – न कि उन समुदायों को नीचा दिखाने के लिए जो पहले से संघर्षरत हैं।
हालांकि, इस बयान पर सोशल मीडिया पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। कुछ लोग कामरा की संवेदनशीलता की तारीफ कर रहे हैं, तो वहीं कुछ इसे पक्षपातपूर्ण रवैया बता रहे हैं। लेकिन कामरा ने स्पष्ट कर दिया कि वह उस समुदाय की आस्था के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहते जिसे उन्होंने नजदीक से जाना ही नहीं है।
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में जहां धर्म और आस्था एक बेहद भावनात्मक मुद्दा है, वहां एक कॉमेडियन का इस तरह की जिम्मेदारीपूर्ण सोच रखना निश्चित ही एक सकारात्मक संदेश देता है। यह बयान सिर्फ एक स्टैंड-अप कॉमेडियन की सोच नहीं है, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति की संवेदना है जो अपने काम के माध्यम से समाज को तोड़ने के बजाय जोड़ने की कोशिश कर रहा है।
कुनाल कामरा का यह बयान हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वाकई आज का हास्य समाज की सच्चाइयों को उजागर कर रहा है या फिर मजाक के नाम पर कमजोर वर्गों को और नीचा दिखाने का ज़रिया बन गया है? ऐसे समय में जब मजाक और नफरत का फर्क मिटता जा रहा है, कामरा की सोच उम्मीद की एक किरण दिखाती है।