बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस पर इस्लामिक कट्टरपंथियों का दबाव: नोबेल पुरस्कार वापसी की उठी मांग

 

बांग्लादेश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति में एक नया मोड़ तब आया जब देश की अंतरिम सरकार के प्रमुख और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस पर इस्लामिक कट्टरपंथी संगठनों का दबाव बढ़ने लगा। देश के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक माहौल में तेजी से परिवर्तन हो रहा है और इसका असर देश की नीतियों और फैसलों पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वहीं, भारत सहित कई अन्य देशों में मोहम्मद यूनुस के खिलाफ नाराजगी भी बढ़ती जा रही है। खासकर बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सवाल उठ रहे हैं।



मोहम्मद यूनुस ने गरीबी उन्मूलन और माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए 2006 में नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त किया था। हालांकि, अब वह राजनीतिक जिम्मेदारियों के साथ एक विवादास्पद दौर से गुजर रहे हैं। हाल ही में उनके नेतृत्व में गठित अंतरिम सरकार पर कट्टरपंथी ताकतों के झुकाव के आरोप लगने लगे हैं। देश में महिला आयोग की कुछ सिफारिशों को लेकर कट्टरपंथी दलों ने खुलेआम विरोध किया और यूनुस को धमकियां दीं। इन धमकियों में यहां तक कहा गया कि उन्हें "5 मिनट भी नहीं मिलेंगे", जो उनकी जान को भी खतरे का संकेत देता है।

महिला अधिकारों के लिए बनाई गई सिफारिशों को लेकर देश के कट्टरपंथी संगठन आक्रोशित हैं। उनका मानना है कि ये सिफारिशें इस्लामी कानून के खिलाफ हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि बांग्लादेश में महिला सशक्तिकरण और धार्मिक उदारता जैसे मुद्दे अब राजनीति के केंद्र में आ चुके हैं। वहीं, यूनुस का इन मामलों पर कोई स्पष्ट स्टैंड न लेना और चुप्पी साध लेना भी लोगों को खटक रहा है।

इस पूरी परिस्थिति का सबसे बड़ा प्रभाव भारत में भी देखा जा रहा है, खासकर वहां के राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के बीच। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कई नेताओं ने मोहम्मद यूनुस से नोबेल पुरस्कार वापस लेने की मांग की है। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया से भाजपा सांसद ज्योतिर्मय सिंह महतो ने नोबेल कमेटी को पत्र लिखते हुए यूनुस पर हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों का जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने लिखा कि यूनुस को "हिंदुओं का कसाई" कहा जाना उचित होगा क्योंकि उनकी सरकार में अल्पसंख्यकों को सुरक्षित महसूस नहीं हो रहा है। इसी तरह, मध्य प्रदेश के इंदौर से भाजपा विधायक रमेश मेंदोला ने भी उनकी कड़ी आलोचना करते हुए नोबेल पुरस्कार वापसी की मांग की है।

हालांकि, नोबेल पुरस्कार को वापस लेने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है। नोबेल कमेटी के नियमों के अनुसार, एक बार पुरस्कार दिए जाने के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता। अब तक के इतिहास में किसी से भी नोबेल पुरस्कार वापस नहीं लिया गया है, चाहे उस व्यक्ति की बाद में कितनी भी आलोचना क्यों न हुई हो। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत में उठी इस मांग का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या असर पड़ता है।

मोहम्मद यूनुस ने इस पूरी स्थिति पर अब तक कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया नहीं दी है। उन्होंने केवल जनता से शांति बनाए रखने की अपील की है और कहा है कि हिंसा से दूर रहना चाहिए। मगर कट्टरपंथियों की धमकियों के बीच उनकी चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है। क्या वह खुद को इन मामलों से अलग रखना चाहते हैं, या फिर सच में किसी दबाव में हैं?

बांग्लादेश की वर्तमान स्थिति केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संकट का भी संकेत है। एक तरफ जहां देश आर्थिक सुधार की राह पर है, वहीं दूसरी ओर कट्टरपंथी ताकतें लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को कमजोर कर रही हैं। मोहम्मद यूनुस जैसे वैश्विक पहचान रखने वाले व्यक्ति पर इस तरह के आरोप लगना और उनके खिलाफ इस स्तर का विरोध होना निश्चित ही चिंता का विषय है।

अंत में, यह कहा जा सकता है कि बांग्लादेश में हालात गंभीर होते जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, महिला अधिकारों की रक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली जैसे मुद्दों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर मोहम्मद यूनुस इस संकट को सही तरीके से नहीं संभालते हैं तो उनका अंतरराष्ट्रीय सम्मान भी खतरे में पड़ सकता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र और नोबेल कमेटी को इस मामले में हस्तक्षेप कर एक निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।