अमेरिका खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और आतंकवाद के खिलाफ सबसे मजबूत योद्धा बताता है, लेकिन उसकी हालिया विदेश नीति कई सवाल खड़े कर रही है। क्या अमेरिका वास्तव में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है या फिर वैश्विक मंच पर आतंकियों के पुनर्वास की नींव रख रहा है? यह सवाल सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेल्लानी ने हाल ही में उठाया है। उनकी इस टिप्पणी ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है, जिसमें अमेरिका के रणनीतिक निर्णयों की आलोचना की जा रही है।
चेल्लानी ने अमेरिका की नीतियों पर तीखा हमला करते हुए कहा कि अमेरिका के हालिया फैसले आतंकवाद के खिलाफ उसकी कथित लड़ाई की सच्चाई को उजागर करते हैं। उन्होंने खास तौर पर तीन घटनाओं का जिक्र किया—पाकिस्तान को आईएमएफ बेलआउट दिलवाना, बांग्लादेश को 1.3 बिलियन डॉलर का लोन देना और सीरिया के एक वांटेड आतंकी नेता से अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात।
पाकिस्तान का नाम हमेशा से ही आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों की सूची में रहा है। वहां की सेना और खुफिया एजेंसी ISI पर आतंकवादी संगठनों को आर्थिक और सामरिक मदद देने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। बावजूद इसके, अमेरिका ने ट्रंप शासनकाल में पाकिस्तान को आईएमएफ से बेलआउट पैकेज दिलवाया। यह फैसला तब लिया गया जब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी और उसे अंतरराष्ट्रीय सहायता की सख्त जरूरत थी। अमेरिका का यह कदम कई लोगों को चौंकाने वाला लगा, क्योंकि यह उस देश की आर्थिक मदद करना था जो वर्षों से आतंकवाद की जड़ माना जाता है।
इसके बाद, अमेरिका ने बांग्लादेश को 1.3 बिलियन डॉलर का लोन देने का समर्थन किया। इस फैसले पर भी सवाल उठे क्योंकि बांग्लादेश में हाल के वर्षों में इस्लामी कट्टरता तेज़ी से बढ़ी है। तुलसी गब्बार्ड जैसी अमेरिकी खुफिया अधिकारियों ने भी बांग्लादेश की स्थिति पर चिंता जताई है। वहां अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार और कट्टर संगठनों की बढ़ती गतिविधियों के बीच अमेरिका का यह समर्थन संकेत देता है कि आर्थिक और सामरिक हित अब अमेरिका की आतंकवाद विरोधी नीति से ज्यादा प्रभावशाली हो चुके हैं।
सबसे चौंकाने वाली घटना तब सामने आई जब डोनाल्ड ट्रंप ने सऊदी अरब में सीरिया के अंतरिम राष्ट्रपति अहमद अल-शराआ से मुलाकात की। यह वही शख्स हैं जिन्हें पहले अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने आतंकवादी घोषित किया था। अल-शराआ पूर्व में अल-कायदा से भी जुड़े रहे हैं। ट्रंप ने उन्हें “युवा” और “आकर्षक” नेता कहकर सराहा और उनके नेतृत्व की प्रशंसा की। इतना ही नहीं, उन्होंने सीरिया पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों को हटाने की भी घोषणा कर दी। इससे स्पष्ट होता है कि अमेरिका अब उन नेताओं के साथ बातचीत करने को तैयार है जिन्हें वह पहले आतंकवादी कहता था।
इन सभी घटनाओं को देखने के बाद ब्रह्मा चेल्लानी की बात में गंभीरता दिखाई देती है। अमेरिका की यह नीति न सिर्फ वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा है बल्कि इससे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई की गंभीरता भी कमजोर पड़ती है। अमेरिका की यह दोहरी नीति दुनिया को यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि क्या वह वास्तव में आतंकवाद के खिलाफ खड़ा है या फिर रणनीतिक हितों के लिए अपने ही सिद्धांतों से समझौता कर चुका है।
अब जब ये घटनाएं सामने आ चुकी हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि वैश्विक मंच पर इन सवालों को गंभीरता से उठाया जाए। भारत जैसे देशों को भी अमेरिका की नीति पर खुलकर सवाल उठाने चाहिए, क्योंकि दक्षिण एशिया में आतंकवाद का प्रभाव सबसे अधिक महसूस किया जाता है। अगर अमेरिका अपनी रणनीति को लेकर स्पष्ट नहीं होता, तो आने वाले समय में आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक एकजुटता बिखर सकती है।
इस पूरे घटनाक्रम ने अमेरिका की भूमिका को एक नई दृष्टि से देखने का अवसर दिया है। अब यह देखना होगा कि क्या अमेरिका अपनी नीतियों में सुधार करेगा या फिर अपने हितों के लिए आतंक के साथ समझौता करता रहेगा।