क्या ईरान की धार्मिक कूटनीति उसे वैश्विक समर्थन से वंचित कर देगी?

हाल ही में इज़राइल और ईरान के बीच जारी टकराव ने एक नया मोड़ ले लिया है, जब पाकिस्तान ने मुस्लिम बहुल देशों से अपील की है कि वे ईरान के समर्थन में एकजुट हों। यह कूटनीतिक प्रयास जहां ईरान के पक्ष में समर्थन जुटाने का प्रयास है, वहीं इससे इस संघर्ष को एक धार्मिक स्वरूप देने की कोशिश भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। अगर यह युद्ध धार्मिक आधार पर आगे बढ़ता है, तो यह स्थिति न केवल पश्चिम एशिया बल्कि पूरे वैश्विक राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर सकती है।

ईरान के लिए यह समय बेहद संवेदनशील है। जब दुनिया के कई गैर-मुस्लिम देश इज़राइल की आक्रामक कार्रवाइयों को अनुचित मानते हुए ईरान को नैतिक समर्थन दे रहे हैं, तब इस समर्थन को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। भारत सहित कई राष्ट्र फिलहाल इस संघर्ष में संतुलित रवैया अपना रहे हैं। वे न तो इज़राइल के साथ खुले समर्थन में हैं और न ही ईरान के विरोध में। यह तटस्थता ही ईरान के लिए वर्तमान में एक कूटनीतिक संबल बनी हुई है।



लेकिन अगर ईरान इस संघर्ष को मजहबी पहचान और मुस्लिम एकता के नारे के साथ आगे बढ़ाता है, तो उसे वैश्विक मंच पर भारी नुकसान हो सकता है। धार्मिक ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा खतरा यही है कि इससे ईरान को मिल रहा गैर-मुस्लिम देशों का नैतिक समर्थन समाप्त हो सकता है। साथ ही, अमेरिका जैसे देशों को इज़राइल के साथ सैन्य रूप से जुड़ने का अधिक स्पष्ट कारण मिल सकता है।

इज़राइल की ओर से यह बात भी सामने आई है कि वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नष्ट करने के लिए अमेरिका की सैन्य सहायता चाहता है, विशेष रूप से बंकर बस्टर बम और भारी बॉम्बर विमानों की मदद। अगर यह सीधी कार्रवाई में बदलता है, तो युद्ध का दायरा और विनाशकता कई गुना बढ़ सकती है। ऐसे में ईरान के पास सीमित विकल्प होंगे और धार्मिक आधार पर समर्थन जुटाना उस पर और दबाव डाल सकता है।

पाकिस्तान के इस्लामी दुनिया को एकजुट करने के प्रयास को भी सावधानी से देखा जाना चाहिए। पाकिस्तान की खुद की वैश्विक स्थिति बहुत स्थिर नहीं है और यदि वह मजहबी युद्ध की आग में ईंधन डालता है, तो उसे भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना का सामना करना पड़ सकता है। वहीं सऊदी अरब, तुर्की जैसे देशों ने अभी तक इस संघर्ष को धर्म आधारित समर्थन नहीं दिया है। वे अब तक कूटनीतिक और राजनीतिक उपायों के पक्ष में खड़े नजर आ रहे हैं।

भारत की भूमिका इस पूरे परिदृश्य में सबसे दिलचस्प है। भारत ने न तो इज़राइल की निंदा की है और न ही ईरान को समर्थन दिया है। यह संतुलित स्थिति उसे वैश्विक मंच पर विश्वसनीय और निष्पक्ष साझेदार बनाती है। भारत के लिए भी यह संघर्ष आर्थिक, रणनीतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह दोनों देशों से ऊर्जा और रक्षा संबंधी व्यापार करता है।

अगर यह संघर्ष आगे जाकर धार्मिक मोड़ लेता है, तो इसके दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। यह सिर्फ पश्चिम एशिया तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यूरोप, दक्षिण एशिया और अमेरिका जैसे क्षेत्रों तक इसका असर देखने को मिलेगा। ईरान को चाहिए कि वह मौजूदा नैतिक समर्थन को राजनीतिक समर्थन में तब्दील करे, न कि उसे धार्मिक एजेंडे की भेंट चढ़ा दे। अगर उसने यह संतुलन नहीं साधा, तो यह उसकी सबसे बड़ी कूटनीतिक भूल साबित हो सकती है।

इस पूरे संघर्ष की दिशा और परिणाम अब इस बात पर निर्भर करते हैं कि ईरान अपने हितों की रक्षा कैसे करता है — क्या वह धार्मिक भावना को बढ़ावा देकर समर्थन जुटाता है या वैश्विक समर्थन के साथ संतुलित और जिम्मेदार राष्ट्र की तरह व्यवहार करता है। यही चुनाव इस क्षेत्र की स्थिरता और विश्व राजनीति की दिशा तय करेगा।