भारतीय राजनीति में एक बार फिर शर्मनाक बयानबाजी ने मानवता को झकझोर कर रख दिया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राज्यसभा सांसद रामचंद्र जांगड़ा ने जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में अपने पतियों को खोने वाली महिलाओं को लेकर बेहद आपत्तिजनक और असंवेदनशील बयान दिया है। उन्होंने सार्वजनिक मंच से कहा कि "पाहलगाम हमले में जिन महिलाओं ने अपने पति खोए, उनमें रानी लक्ष्मीबाई जैसा साहस और जज्बा नहीं था। अगर उनमें वीरांगना जैसा भाव होता, तो 26 लोगों की जान नहीं जाती।"
यह बयान न केवल पीड़ित परिवारों के घावों पर नमक छिड़कने जैसा है, बल्कि यह हमारे नेताओं की संवेदनहीनता को भी दर्शाता है। देश की जनता अभी भी इस आतंकी हमले से उबरने की कोशिश कर रही है, जिसमें 26 निर्दोष लोगों की जान गई थी। ऐसे समय में जब समाज को एकजुटता और संवेदना की आवश्यकता है, तब इस तरह के बयानों से केवल पीड़ा और गुस्सा ही उपजता है।
रामचंद्र जांगड़ा के इस बयान की चौतरफा निंदा हो रही है। कांग्रेस नेता दीपेंद्र हुड्डा और अन्य विपक्षी नेताओं ने इस टिप्पणी को पीड़ितों का अपमान बताया है। सोशल मीडिया पर भी लोग सांसद की आलोचना कर रहे हैं और उनकी तत्काल बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं। ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर #SackRamchandraJangra ट्रेंड कर रहा है और लाखों लोग इस शर्मनाक बयान के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है जब किसी नेता ने संवेदनशील मसले पर असंवेदनशील बयान दिया हो, लेकिन यह जरूर कह सकते हैं कि यह बयान भारत की लोकतांत्रिक भावना और जनप्रतिनिधियों की नैतिक जिम्मेदारी के खिलाफ है। जब एक जनप्रतिनिधि, जो संसद में लाखों लोगों की आवाज़ कहलाता है, वह इस प्रकार का बयान देता है, तो उससे समाज में गलत संदेश जाता है और पीड़ित परिवारों की भावनाओं को गहरी चोट पहुंचती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस बयान से न केवल भाजपा की छवि धूमिल हुई है, बल्कि यह संसद की गरिमा के लिए भी खतरे का संकेत है। राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके प्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से अपने शब्दों का चयन सोच-समझकर करें और संवेदनशील मुद्दों पर विशेष रूप से सहानुभूति के साथ बयान दें।
पार्टी स्तर पर अब तक कोई सख्त कार्रवाई देखने को नहीं मिली है, लेकिन देश की जनता उम्मीद कर रही है कि ऐसे गैर-जिम्मेदाराना और अपमानजनक बयानों पर राजनीतिक दल सख्ती से पेश आएंगे। यह वक्त है जब नेताओं को यह समझना चाहिए कि सत्ता के साथ संवेदनशीलता और उत्तरदायित्व भी आता है।
इस घटना ने एक बार फिर साबित किया है कि हमारे देश में राजनीति के स्तर को ऊपर उठाने के लिए न केवल नई नीतियों की आवश्यकता है, बल्कि नेतृत्व में नैतिकता और मानवीय मूल्यों की भी सख्त दरकार है। जब तक हमारे नेता शब्दों की गरिमा और आम जनता की संवेदनाओं को नहीं समझेंगे, तब तक लोकतंत्र को मजबूत करना एक सपना ही बना रहेगा।
देश की जनता अब जाग चुकी है और वह ऐसे असंवेदनशील बयानों को न केवल याद रखेगी, बल्कि उसका राजनीतिक जवाब भी समय आने पर देगी।