हाल के दिनों में भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता पर कई गंभीर सवाल उठे हैं। खासकर अप्रैल 2025 में कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले और भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के दौरान, मीडिया का आचरण और रिपोर्टिंग की शैली न केवल निराशाजनक रही बल्कि शर्मनाक भी कही जा सकती है। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, वही जब गलत सूचना फैलाने का माध्यम बन जाए, तो यह चिंता का विषय बन जाता है।
भारतीय मीडिया ने आतंकवादी हमले के तुरंत बाद कई ऐसे दावे किए जिनकी पुष्टि किसी भी आधिकारिक स्रोत से नहीं हुई थी। कुछ प्रमुख न्यूज चैनलों ने यह रिपोर्टिंग की कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान में गहरे हमले किए हैं और कई आतंकियों को मार गिराया है। जबकि सरकार और सेना की ओर से कोई भी आधिकारिक पुष्टि नहीं आई थी, फिर भी यह खबर दिनभर टीवी स्क्रीन और सोशल मीडिया पर छाई रही। यह रिपोर्टिंग तथ्यहीन थी, लेकिन दर्शकों के बीच एक राष्ट्रवादी भावनात्मक माहौल बनाने में सफल रही।
समस्या तब और गंभीर हो गई जब सोशल मीडिया पर पुराने वीडियो और तस्वीरों को वर्तमान संघर्ष से जोड़कर प्रस्तुत किया गया। कई मीडिया हाउस ने इन विडियोज़ को बिना जांचे अपने न्यूज़ बुलेटिन में दिखा दिया। इससे न केवल जनता में भ्रम फैला बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की मीडिया छवि को भी नुकसान पहुंचा। रॉयटर्स और यूरेशिया रिव्यू जैसी अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट्स ने भारतीय मीडिया की इस गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग की आलोचना की और इसे "गलत सूचना का गढ़" बताया।
सवाल यह है कि भारतीय मीडिया इतनी जल्दी सनसनी फैलाने की होड़ में क्यों लग जाता है? इसका उत्तर कहीं न कहीं टीआरपी की दौड़ में छुपा है। जिस खबर से अधिक व्यूज़ मिलते हैं, उसी को पहले दिखाने की होड़ में मीडिया संस्थान तथ्य और पत्रकारिता की नैतिकता को नजरअंदाज कर देते हैं। इस प्रक्रिया में न केवल दर्शकों का भरोसा टूटता है, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भी खतरा पैदा करता है।
नीति आयोग के अधिकारियों और मीडिया विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय मीडिया को अब आत्ममंथन की आवश्यकता है। अगर मीडिया को अपनी विश्वसनीयता बचानी है, तो उसे तथ्य आधारित, निष्पक्ष और संतुलित रिपोर्टिंग की ओर लौटना होगा। साथ ही मीडिया हाउस को अपने रिपोर्टरों और एंकरों को ट्रेनिंग देने की भी जरूरत है, जिससे वे संवेदनशील घटनाओं की रिपोर्टिंग करते समय संयम बरत सकें।
मीडिया की भूमिका केवल समाचार देना नहीं, बल्कि समाज में सोच को दिशा देना भी है। जब यह सोच गलत दिशा में जाती है, तो उसका प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं रहता, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पड़ता है। यही कारण है कि दुनिया भर के पत्रकार और विश्लेषक भारतीय मीडिया की गिरती साख को लेकर चिंतित हैं।
अंत में यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर भारतीय मीडिया ने अब भी अपनी कार्यशैली में बदलाव नहीं किया, तो वह धीरे-धीरे अपने दर्शकों का भरोसा पूरी तरह खो देगा। इसे रोकने का एकमात्र तरीका है जिम्मेदार पत्रकारिता को अपनाना, सत्य को प्राथमिकता देना और सनसनी से दूर रहना। तभी जाकर मीडिया फिर से एक मजबूत और सम्माननीय स्तंभ बन पाएगा।