बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में तीन अहम फैसले सुनाए हैं, जो न केवल न्यायिक व्यवस्था की निष्पक्षता को दर्शाते हैं, बल्कि मानवाधिकारों और संस्थागत पारदर्शिता की रक्षा की मिसाल भी पेश करते हैं। इन फैसलों में एक यमनी शरणार्थी की रिहाई, मुंबई एयरपोर्ट के विवादित ठेका प्रक्रिया पर रोक और 19 वर्षीय खदीजा शेख को जमानत देने की खबरें शामिल हैं। इस ब्लॉग में हम इन तीनों फैसलों का विस्तार से विश्लेषण करेंगे।
सबसे पहले बात करते हैं यमनी नागरिक मोहम्मद कासिम अल-शिबाह की, जो पिछले कई दिनों से बायकुला पुलिस स्टेशन में बिना उचित कानूनी प्रक्रिया के हिरासत में रखे गए थे। मोहम्मद कासिम एक UNHCR-पंजीकृत शरणार्थी हैं और 16 मई 2025 से उन्हें अवैध रूप से रोका गया था। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस हिरासत को ‘अनियमित’ करार देते हुए उन्हें तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पूछा कि बिना किसी अपराध और कानूनी आधार के एक विदेशी नागरिक को ऐसे कैसे रखा जा सकता है। साथ ही कोर्ट ने उनके पासपोर्ट की जब्ती को भी गैरकानूनी करार देते हुए उसे लौटाने का निर्देश दिया। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि वह बिना अनुमति के मुंबई से बाहर नहीं जा सकते। यह फैसला न केवल कानून के शासन को दर्शाता है बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि भारत में मौलिक अधिकार सिर्फ नागरिकों तक सीमित नहीं, बल्कि सभी मानवों के लिए लागू हैं।
दूसरी ओर, मुंबई एयरपोर्ट पर चल रहे ग्राउंड हैंडलिंग कॉन्ट्रैक्ट विवाद में भी हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए बड़ी राहत दी है। टर्की की कंपनी Çelebi एविएशन को मुंबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ग्राउंड हैंडलिंग सेवाएं देने का अनुबंध मिला हुआ है, लेकिन MIAL (मुंबई इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटेड) ने नए अनुबंध के लिए प्रक्रिया शुरू कर दी थी। Çelebi ने इस प्रक्रिया को चुनौती दी और कोर्ट ने अंतरिम आदेश जारी करते हुए MIAL को नया ठेका देने से फिलहाल रोक लगा दी है। कोर्ट के इस आदेश से Çelebi को बड़ी राहत मिली है और मामले की निष्पक्ष जांच सुनिश्चित की जा रही है। इससे यह संकेत मिलता है कि कॉर्पोरेट विवादों में भी न्यायपालिका पारदर्शिता और प्रक्रिया की निष्पक्षता को सर्वोपरि मानती है।
तीसरे और सबसे विवादास्पद मामले की बात करें तो कुछ खबरें सोशल मीडिया और कुछ समाचार स्रोतों में यह सामने आई हैं कि 19 वर्षीय खदीजा शेख को बॉम्बे हाईकोर्ट ने जमानत दे दी है। उन पर पाकिस्तान के समर्थन और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को 'हिंदुत्व आतंकवाद' कहने के आरोप लगे थे। हालांकि इस खबर की पुष्टि किसी विश्वसनीय समाचार संस्था से नहीं हो पाई है। फिर भी यदि ऐसा हुआ है तो यह मामला विचारणीय है क्योंकि इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानूनी प्रक्रिया के बीच संतुलन को लेकर बड़ा सवाल उठता है।
इन तीनों मामलों में बॉम्बे हाईकोर्ट की सक्रियता यह दर्शाती है कि न्यायपालिका समाज के कमजोर तबकों और संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। चाहे वह विदेशी शरणार्थी हो, कोई अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेट कंपनी हो या कोई युवा नागरिक – कोर्ट ने सभी मामलों में निष्पक्ष न्याय और संवैधानिक अधिकारों को प्राथमिकता दी है।
इस प्रकार बॉम्बे हाईकोर्ट के ये फैसले न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये सामाजिक और मानवाधिकारों के संरक्षण की दिशा में भी एक मजबूत कदम माने जा सकते हैं।