सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ FIR की याचिका खारिज की – क्या न्याय सभी के लिए समान है?

हाल ही में एक ऐसा मामला सामने आया है जिसने देश की न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने 21 मई 2025 को खारिज कर दी। इस याचिका को अधिवक्ता मैथ्यूज जे. नेडुमपारा और अन्य की ओर से दायर किया गया था। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने के बाद करीब 15 करोड़ रुपये की अधजली नकदी बरामद हुई, जो गंभीर आपराधिक संदेह को जन्म देती है।

सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान शामिल थे, ने इस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि यह असमयिक है। कोर्ट का कहना था कि जब तक इस मामले की जांच के लिए गठित तीन सदस्यीय इन-हाउस समिति अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर देती, तब तक आपराधिक जांच की मांग पर विचार नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि याचिकाकर्ता को कोई शिकायत है, तो उन्हें पहले प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से संपर्क करना चाहिए।



यह टिप्पणी अपने आप में चौंकाने वाली है। क्या एक आम नागरिक के लिए भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है? यदि किसी सामान्य व्यक्ति के पास से नकदी या अन्य संदिग्ध वस्तुएं बरामद होतीं, तो क्या जांच या एफआईआर के लिए प्रधानमंत्री से अनुमति लेनी पड़ती? बिल्कुल नहीं। ऐसे मामलों में तुरंत एफआईआर दर्ज होती है और व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ शुरू हो जाती है। लेकिन जब बात एक उच्च न्यायाधीश की आती है, तो न्याय की प्रक्रिया में विशेष मापदंड क्यों अपनाए जाते हैं?

इस घटना ने न्यायपालिका की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर एक बार फिर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। जस्टिस वर्मा के घर से बड़ी मात्रा में नकदी का मिलना और उसके बावजूद किसी प्रकार की आपराधिक कार्रवाई न होना, जनता की नजरों में न्याय प्रणाली को कमजोर करता है। यह घटना केवल एक व्यक्ति विशेष की नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम की जवाबदेही को उजागर करती है। अगर न्यायपालिका के अंदर ही भ्रष्टाचार के आरोप सामने आते हैं और उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होती, तो यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की बुनियाद को हिला सकता है।

मार्च 2025 में यह मामला तब उजागर हुआ था जब जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगी थी। दमकल विभाग द्वारा आग बुझाने के बाद वहां से अधजली नकदी मिलने की बात सामने आई। इसके बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने एक तीन-सदस्यीय समिति का गठन किया और जस्टिस वर्मा को इस्तीफा देने का सुझाव दिया था। लेकिन वर्मा द्वारा इस्तीफा न देने के कारण मामला और गंभीर हो गया और इसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पास भेजा गया।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कि पहले प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के पास जाया जाए, न केवल कानूनी प्रक्रिया को जटिल बनाता है बल्कि न्याय की सुलभता पर भी प्रभाव डालता है। यदि देश का सर्वोच्च न्यायालय किसी के खिलाफ जांच को असमयिक बताकर खारिज कर दे और न्याय के लिए उच्च स्तर की स्वीकृति की जरूरत हो, तो यह व्यवस्था आम जनता के हित में नहीं कही जा सकती।

आज आवश्यकता है कि न्यायपालिका अपनी गरिमा को बनाए रखते हुए पारदर्शिता और जवाबदेही को भी अपनाए। अन्यथा, जनता का विश्वास धीरे-धीरे न्याय व्यवस्था से उठता जाएगा। क्या यह वही न्याय है जो हमें संविधान में समानता और निष्पक्षता का अधिकार देता है? यह सवाल अब हर नागरिक के मन में है और इसका उत्तर न्यायपालिका को खुद देना होगा।