साल 2025 में रिलीज़ हुई बायोपिक फिल्म फुले भारतीय समाज सुधारकों महात्मा ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है। यह फिल्म ना केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि आज के दौर में भी इसकी प्रासंगिकता को देखते हुए यह एक प्रेरणादायक सिनेमाई प्रस्तुति बन जाती है। इस फिल्म का निर्देशन अनुभवी फिल्मकार अनंत नारायण महादेवन ने किया है और मुख्य भूमिकाओं में प्रतीक गांधी (ज्योतिराव फुले) और पत्रलेखा (सावित्रीबाई फुले) हैं।
फुले दंपति के जीवन पर आधारित यह फिल्म भारतीय समाज में शिक्षा, समानता और जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ी गई ऐतिहासिक लड़ाई को उजागर करती है। फिल्म की कहानी 19वीं सदी के उस दौर को बखूबी दर्शाती है, जब जातिगत असमानता और महिलाओं के अधिकारों का हनन चरम पर था। ऐसे समय में ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले ने समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग के लिए शिक्षा और समानता की मशाल जलाने का साहसिक कार्य किया।
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है इसके कलाकारों की दमदार अदायगी। प्रतीक गांधी ने ज्योतिराव फुले के किरदार में गहराई और संवेदना का शानदार प्रदर्शन किया है। वहीं पत्रलेखा ने सावित्रीबाई फुले के रूप में एक सशक्त, समर्पित और संवेदनशील महिला की छवि को जीवंत किया है। दोनों के बीच की केमिस्ट्री और उनकी संघर्षपूर्ण यात्रा को देखकर दर्शक भावुक हुए बिना नहीं रह सकते।
फिल्म का निर्देशन बेहद सधा हुआ और सच्चाई के करीब है। अनंत महादेवन ने बिना किसी नाटकीयता के, समाज सुधार की गंभीरता को बारीकी से प्रस्तुत किया है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर और सिनेमैटोग्राफी उस युग के परिवेश को बखूबी दर्शाने में सफल रही है। खास तौर पर उस समय की सामाजिक परिस्थिति, स्कूलों की स्थापना, दलित समाज के संघर्ष और शिक्षा के प्रसार को सजीव ढंग से चित्रित किया गया है।
फुले फिल्म की पटकथा सीधे-सीधे घटनाओं का क्रम दिखाती है, जिससे कभी-कभी यह एक डॉक्यूमेंट्री जैसा महसूस होता है। इसमें नाटकीय उतार-चढ़ाव या इमोशनल क्लाइमैक्स की कमी कुछ दर्शकों को खल सकती है। लेकिन अगर इसे एक शिक्षाप्रद फिल्म के तौर पर देखा जाए, तो यह हर पहलू में खरी उतरती है।
फिल्म का रिलीज़ भी एक खास तारीख पर किया गया – 11 अप्रैल 2025, जो कि महात्मा ज्योतिराव फुले की जयंती है। हालांकि, कुछ विवादों और सेंसर बोर्ड द्वारा सुझाए गए बदलावों के चलते इसकी रिलीज़ डेट को आगे बढ़ाकर 25 अप्रैल 2025 किया गया। लेकिन फिल्म के संदेश और प्रभाव में कोई कमी नहीं आई।
फिल्म की कहानी के साथ-साथ यह फिल्म आज के समाज के लिए भी एक मजबूत संदेश देती है कि शिक्षा, समानता और सामाजिक न्याय की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। फिल्म में दिखाया गया कि कैसे उस समय बालिकाओं की शिक्षा को लेकर विरोध होता था, और किस प्रकार सावित्रीबाई फुले ने उन बाधाओं को पार कर एक मिसाल कायम की। यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, खासकर ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में।
फिल्म को लेकर समीक्षकों की प्रतिक्रियाएं मिली-जुली रही हैं। कुछ समीक्षकों ने इसे "संवेदनशील लेकिन सतही" करार दिया है, तो कुछ ने इसे “सशक्त प्रदर्शन और प्रेरणादायक विषय” वाला बताया है। द क्विंट और न्यूजलॉन्ड्री जैसी वेबसाइट्स ने फिल्म की ईमानदारी और ऐतिहासिक सच्चाई को प्रस्तुत करने की शैली की सराहना की है। वहीं स्क्रॉल.इन जैसे प्लेटफॉर्म्स ने इसे अपेक्षाकृत उबाऊ बताया और कहा कि फिल्म में फुले दंपति की क्रांतिकारी भावना को पूरी तरह नहीं उभारा गया है।
फिल्म का ट्रेलर भी काफी सराहा गया था, जिसमें दर्शकों को फुले दंपति के संघर्ष, शिक्षा का अधिकार और सामाजिक क्रांति की एक झलक देखने को मिलती है। यह ट्रेलर न केवल फिल्म के मूल विचार को प्रस्तुत करता है, बल्कि दर्शकों को सोचने पर मजबूर भी करता है।
अगर आप इतिहास, समाज सुधार या प्रेरणादायक कहानियों में रुचि रखते हैं, तो फुले फिल्म जरूर देखी जानी चाहिए। यह फिल्म ना केवल भारतीय इतिहास में एक क्रांतिकारी अध्याय को जीवंत करती है, बल्कि आज के युवाओं को सामाजिक जिम्मेदारी का भी एहसास कराती है।
संक्षेप में कहा जाए तो फुले फिल्म एक सशक्त विषय को संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ पर्दे पर लाने का प्रयास है। यह एक ऐसी फिल्म है जो केवल मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि समाज को जागरूक करने के उद्देश्य से बनाई गई है। भले ही यह बॉक्स ऑफिस पर कोई बड़ा धमाका न कर पाए, लेकिन इसका सामाजिक और शैक्षिक प्रभाव निश्चित रूप से दूरगामी होगा।
निष्कर्ष:
फुले 2025 एक जरूरी फिल्म है, जो भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं के खिलाफ एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह खड़ी होती है। यह फिल्म दर्शकों को ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले जैसे समाज सुधारकों के बलिदान और संघर्ष से परिचित कराती है, और बताती है कि शिक्षा ही वह शक्ति है जिससे समाज में सच्चा परिवर्तन लाया जा सकता है।