जस्टिस यशवंत वर्मा पर महाभियोग की तैयारी: भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में बड़ा मोड़

भारत की न्यायिक प्रणाली में इस समय एक अभूतपूर्व घटना चर्चा का विषय बनी हुई है। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर अचानक लगी आग ने एक ऐसे घोटाले को जन्म दिया जिसने पूरे देश को चौंका दिया। आग बुझाने के बाद जब राहत और बचाव कार्य शुरू हुए, तब अग्निशमन कर्मियों को जली हुई नकदी मिली जिसकी अनुमानित राशि ₹15 करोड़ बताई गई। इस घटना ने न केवल न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए, बल्कि पूरे देश को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या न्यायिक अधिकारी भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं हैं?



इस घटना के बाद मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने तुरंत तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की, जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शील नागु, हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति अनु शिवरामन शामिल थीं। इस समिति ने जांच कर यह निष्कर्ष निकाला कि नकदी बरामदगी की पुष्टि होती है और संबंधित कमरे में केवल न्यायमूर्ति वर्मा और उनके परिवार के लोगों की ही पहुंच थी। इसके अलावा, जांच में यह भी सामने आया कि उसी कमरे में शराब की अलमारी भी थी जिससे आग और अधिक भड़की।

हालांकि जस्टिस वर्मा ने इन आरोपों को साजिश बताते हुए खारिज किया है, लेकिन इसके बावजूद 24 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट प्रशासन ने उनके न्यायिक कार्यों को वापस ले लिया। इसके तुरंत बाद उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्थानांतरित कर दिया गया, जहां उन्होंने चुपचाप कार्यभार ग्रहण कर लिया। यह स्थानांतरण भी कई लोगों की नजरों में सवाल खड़े करता है कि क्या यह एक तरह की 'बचाव नीति' थी?

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने 9 मई को इस जांच रिपोर्ट को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सौंप दिया और उनके खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की। अब खबर यह है कि आगामी मानसून सत्र में राज्यसभा में जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया जा सकता है। अगर यह प्रस्ताव पारित होता है, तो यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहला मौका होगा जब किसी मौजूदा न्यायाधीश को महाभियोग के माध्यम से पद से हटाया जाएगा।

इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने इस पूरे मामले को "जनता की जीत" करार देते हुए सभी राजनीतिक दलों से महाभियोग प्रस्ताव का समर्थन करने की अपील की है। यह कदम न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।

यह मामला एक महत्वपूर्ण संदेश देता है कि भारत में अब न्यायपालिका भी पूरी तरह जवाबदेह होनी चाहिए और भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाने में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। यह घटना आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र की न्यायिक शाखा को और अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की दिशा में एक क्रांतिकारी शुरुआत हो सकती है।