जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन इस बार किसी विवाद या आंदोलन को लेकर नहीं, बल्कि अपने प्रशासनिक पद के नाम में किए गए एक ऐतिहासिक बदलाव को लेकर। विश्वविद्यालय प्रशासन ने यह निर्णय लिया है कि अब से ‘कुलपति’ की जगह ‘कुलगुरु’ शब्द का उपयोग किया जाएगा। यह फैसला न केवल भाषाई दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है बल्कि यह लैंगिक तटस्थता की दिशा में भी एक साहसिक कदम माना जा रहा है।
‘कुलपति’ शब्द में प्रयुक्त ‘पति’ उपसर्ग लंबे समय से लैंगिक भेदभाव का प्रतीक माना जाता रहा है, क्योंकि यह परंपरागत रूप से पुरुषवाचक है। इसी असंतुलन को दूर करने के लिए JNU प्रशासन ने यह निर्णय लिया कि अब इस शीर्ष प्रशासनिक पद को लैंगिक दृष्टि से तटस्थ नाम 'कुलगुरु' से संबोधित किया जाएगा। यह बदलाव विश्वविद्यालय के शैक्षणिक प्रमाणपत्रों और आधिकारिक दस्तावेजों में भी परिलक्षित होगा।
इस बदलाव की नींव तीन साल पहले रखी गई थी जब JNU की कुलपति प्रोफेसर शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित ने इस प्रस्ताव को सामने रखा था। उन्होंने सुझाव दिया था कि विश्वविद्यालय की भाषा को अधिक समावेशी और लैंगिक रूप से संवेदनशील बनाया जाए। लंबे विचार-विमर्श और प्रशासनिक प्रक्रिया के बाद आखिरकार विश्वविद्यालय ने इस बदलाव को मंजूरी दे दी है। अब यह निर्णय आधिकारिक रूप से लागू हो चुका है।
JNU का यह निर्णय केवल एक नाम परिवर्तन नहीं है, बल्कि यह पूरे देश के लिए एक संदेश है कि शैक्षणिक संस्थाएं अब सिर्फ ज्ञान देने वाली संस्थाएं नहीं रहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता और सुधार का केंद्र भी बन रही हैं। यह पहल उन तमाम संस्थानों के लिए उदाहरण बन सकती है जो अभी भी पारंपरिक पदनामों में बदलाव से हिचकते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि यह बदलाव सिर्फ JNU तक सीमित नहीं है। हाल ही में राजस्थान सरकार ने भी राज्य के 32 सरकारी सहायता प्राप्त विश्वविद्यालयों में ‘कुलपति’ की जगह ‘कुलगुरु’ और ‘प्रतिकुलपति’ की जगह ‘प्रतिकुलगुरु’ शब्द को लागू करने का विधेयक पास किया है। हालांकि यह बदलाव केवल हिंदी भाषा में लागू किया गया है, अंग्रेज़ी में ‘Vice Chancellor’ पदनाम यथावत रहेगा।
JNU का यह कदम एक सकारात्मक और समावेशी बदलाव की ओर इशारा करता है। यह दर्शाता है कि अब समय आ गया है जब शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं रहे, बल्कि वह समाज में नई सोच, समानता और समावेशिता को जन्म देने का माध्यम बने। भविष्य में हम उम्मीद कर सकते हैं कि देश के अन्य विश्वविद्यालय भी इस दिशा में पहल करेंगे और शिक्षा व्यवस्था को अधिक प्रगतिशील बनाएंगे।
इस बदलाव के साथ JNU एक बार फिर भारत की अग्रणी संस्थानों में अपनी साख को मजबूत करता दिख रहा है। संभव है कि आने वाले समय में हम JNU को "गुरुकुल" के रूप में भी देखें – एक ऐसा केंद्र जहां ज्ञान के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों और समरसता की शिक्षा भी दी जाए।